Saturday 28 May 2016

गढ़ कलेवा : पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजनों के संरक्षण हेतु अभिनव प्रयास

आज आधुनिकीकरण की दौड़ में जब कि पूरा विश्व एक ही गांव अर्थात ग्लोबल विलेज का रूप लेने लगा हैं, मानव संस्कृति के विविध पक्षों में तेजी से बदलाव आने लगे हैं। इन बदलाव के क्रम में पारंपरिक खान-पान में भी अत्यधिक प्रहार हो रहा है। परंपराओं को अदृश्य होने जाने की इस स्थिति में जब कि अनेक पारंपरिक ज्ञान पद्धतियां विलोप की कगार की ओर जाने पर हासिये तक पहुंच गयी है, उन्हें बचाना और फिर से केन्द्र में स्थापित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। अलग-अलग क्षेत्रांे में संस्कृति के इन विविध पक्षों के संरक्षण-संवर्धन हेतु कतिपय प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु खाद्य परंपराएं ऐसा क्षेत्र है, जिनपर तत्काल कार्य किए जाने की आवश्यकता है।

आधुनिकीकरण की इस दौर में ऐसे अनेक कारण है जो देशज खान-पान को प्रभावित कर रहे है, जिनमें प्रमुख है लोगों का गांवों से शहर की ओर पलायन और गांवों में शहरों की घुसपैठ जिसके चलते आज बनने वाले मकानों का वैसा उपयोग कठिन है, जैसा पारंपारिक घरों का हुआ करता है। ईंधन के पारंपरिक साधनों की कमी के चलते विश्व व्यापी आधुनिक ईंधन की स्वीकार्यता भी ऐसे कारण है, जिसके फलस्वरूप अनेक पारंपरिक व्यंजनों को तैयार किए जाने में कठिनाई आती है। संचार माध्यमों के विस्तार ने भी इस क्षेत्र में अपनी ऐसी घुस पैठ की है कि वह भी देसज खान-पान को प्रभावित कर रहा हैं।

दुनिया में अनेक देश ऐसे हैं खास कर दक्षिण पूर्व एशिया में थाईलेण्ड, ताइवान, कोरिया इत्यादि, जिन्होंने अपने पारंपरिक व्यंजनों का अपने देश के पर्यटन को बढ़ावा देने इस्तेमाल किया है, और उन्हें इसमें अशातीत सफलता भी प्राप्त हुई है। स्वतः भारत में अनेक राज्य अपने पांरपरिक व्यंजनों को जोर-सोर से प्रचार-प्रसार और विपणन कर उसें शक्ति प्रदान कर रहे है, जिनमें राजस्थान, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी राज्यों आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखित किये जा सकते है। इन राज्यों में तथा ऐसी ही अनेक राज्यों में वहां के पारंपरिक खान-पान के लोकप्रिय करण का कार्य व्यवसायियों द्वारा व्यवासय के रूप में किया जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप वे व्यंजन न केवल उस राज्य विशेष में अपितु देश के अन्य राज्य तथा विदेशों में भी लोकप्रिय हुए है, किंतु छत्तीसगढ़ में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है, शायद इसलिये क्यूंकि छत्तीसगढ़ में हर तरह का व्यापार उन लोगों के हाथ में है जिनका पारंपरिक खान-पान छत्तीसगढ़ी नहीं है। इसीलिए उन्होंने छत्तीसगढ़ व्यंजनों के विपणन की बात शायद सोची नही और अपने-अपने पारंपरिक व्यंजनों तथा बाजार में चलने वाले कतिपय अन्य खान-पान के व्यापार में ही जुटे है। जाहिर है जो आशानी से मिलता है, जो सुलभता से उपलब्ध हो जाता है जनता उसे ग्रहण कर लेती है।

इस परिस्थिति को ध्यान में रख कर छत्तीसगढ़ राज्य की पारंपरिक खान-पान शैली की प्रसारित-प्रचारित संरक्षित करने, उसे अक्षुण्ण बनाने तथा लोगों को सहजता से इनके आस्वादन का अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग द्वारा एक अभिनव प्रयास किया जा रहा है, ‘गढ़ कलेवा’ के नाम से जिसमें फिलहाल कुछ चयनित छत्तीसगढ़ी पांरपरिक व्यंजनों को आगंतूको को सुलभ कराया जा रहा है।

बिहनियां का यह अंक जब आपके हाथों में होगा तब तक ‘गढ़ कलेवा’ शुरू हो गया रहेगा। दर असल विभाग ने महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय स्थिति अपने विभागीय केन्टीन को पूर्णतः पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजन आस्वादन सुविधा के रूप  में विकसित किया है। इस स्थल पर वर्तमान में चीला, फरा, घुसका, अंगाकर, बफौरी, देहरहरी, बरा, बोबरा, मालपुआ, करीलाडू, खाजा आदि लगभग तीन दर्जन छत्तीसगढ़ी व्यंजनो को उपलब्ध कराया जा रहा है।

गढ़ कलेवा स्थल को एक सुसज्जित छत्तीसगढ़ी गांव के परिवेश में रचा गया है, जिसमें आगंतुकों के बैठने के लिए माची, खटिया सदृश्य व्यवस्था की गयी है और बर्तन भी कांसे के ही प्रयोग में लाए जा रहे हैं। परिसर की प्रकाश व्यवस्था भी इस तरह से की गयी है कि परिसर पूर्णतः ग्रामीण ही महसूस हो। अतिरिक्त आकर्षण के रूप में पारंपरिक छत्तीसगढ़ी गीत और लोकधुन वाद्य-वृंदों के रूप में बजते रहता है।

गढ़ कलेवा यहां के देसज खान-पान की दिशा में एक मील का पत्थर तो हैं ही, यह-वहां आने वालों के लिए एक सुखद एवं चिरस्मरणीय स्थल भी है, आस्वाद की दृष्टि से, सुकून की दृष्टि से और ग्रामीण परिवेश के सौंदर्य का आनंद लेने की दृष्टि से। 

-अशोक कुमार तिवारी

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