Saturday 28 May 2016

धारित्रि: परंपराओं की

मैंने अपनी सास से सुना था, और उसका भरपूर पालन करने की अब तक कोशिश की है, पर पता नहीं मेरी बहुयें कर पायेगें या नहीं। अब देखो ना हम सब गांव छोड़ कर शहर आ गये, तो मैं इस बात से चिन्तित हुई कि कुल देवता की पूजा नहीं हो रही है। मेरे बड़े बेटे और बहू ने मेरी चिन्ता दूर की, और कुल देवता को गांव से शहर ले आये। हमारे कुल देवता का स्थान रसोई घर में होता है जिसके प्रतीक के रूप में एक छोटा सा चबूतरा होता है। इस चबूतरे के उपर हम लोग दशहरा और होली के अवसर पर कुल देवता की पूजा करते है। मेरी सास ने बताया था कि हमारे कुल देवता का नाम तुरकी देव है, जो मुसलमान थे। ऐसा कहा जाता है कि हमारे वंश के सब लोगों को एक संघर्ष में मृत्यु का सामना करना पड़ा, तब एक मुसलमान ने हमारे पूर्वजों में से एक युवक को अपने घर के अन्नागार (कोठी) में छुपाकर बचाया, और संघर्ष की समाप्ति के बाद उसकी एक हिन्दू बच्चे की तरह ही लालन पालन की उसका विवाह किया, और उसकी पिता की सारी संपत्ति उसे सौंप दी। अर्थात चूंकि हमारे पितृ पुरूष के रक्षक एक मुसलमान थे इसलिए हम उस महान व्यक्ति को तुरकी देव के नाम से कुल देवता के रूप में पूजते है। मैंने इसके बारे में सारी बाते और पूजा के सभी विवरण अपनी एक बहू को लिखवा तो दिया है पर क्या मालूम मेरे जाने के बाद क्या होगा। क्योंकि अभी ही मैंने देखा की एक दिन कुल देवता के आसन पर जूठे तवे को रख दिया था और आज-कल की नई-नई बहू-बेटी तो कुल देवता के स्थान रसोई घर में बिना नहाये और चप्पल पहने घुस जाती हैं।
    ये कथन एक वृद्ध महिला के थे जो अब इस दुनिया में नहीं रही, उन्होंने यह भी बताया था कि परम्पराओं, रीतिरिवाजों और अनुष्ठानों की सारी जिम्मेदारी का बोझ औरत पर रहता है। आदमी की भूमिका शायद एक परिवार के पालक के रूप में ही अधिक रहती ह,ै जो धन का उपार्जन कर पालन पोषण करता है। सचमुच उनकी बाते कितनी सही है। शायद सभी को आभास होता होगा। आज चाहे जन्म से संबंधित संस्कार हो, चाहे विवाह से संबंधित, चाहे मृत्यु से संबंधित, उनके विस्तारण के सभी चरण और नेंग केवल महिलाओं के ज्ञान क्षेत्र तक ही सीमित रहती हैं, और ऐसे तमाम अवसरों पर परिवार और सगे संबंधियों में, जानकार सयानी महिला की खोज की जाती है, जिनके बारे में यह अपेक्षित रहता है कि वे सारे संस्कारों के बारे में भली भांती जानती हांेगी। शिक्षा के प्रसार-प्रचार, शहरीकरण, अन्य संस्कृति के क्षेत्रों में निवास, और आधुनिकता के कारण वर्तमान समय में युवा महिलाओं को इन तमाम बातों को सीखने का अवसर ही नहीं मिल पाता, तो वे बिचारी जानेंगे ही क्या? करेंगे ही क्या? और अपनी अगली पीढ़ी को सिखायेंगे ही क्या?
    भारतीय संस्कृति के क्षेत्र की एक अध्येता डॉ. मधु खन्ना ने अपने एक लेख में लिखा है कि सभ्यता के साथ स्त्री के संबंधों को एक नये सिरे से जानने समझने की आवश्यकता है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जबकि, न सिर्फ इस देश वरन समूचे दुनियां की पौरूष, दंभ, उपेक्षा, अपमान और प्रताडना का कई बार सामना करना पड़ता है, अधिक प्रासंगिक हो जाता है। यहां इस बात को विशेष उल्लेख के साथ करना आवश्यक हो जाता है कि मानव सभ्यता के विकास के सोपन में प्रथम खाद्य संग्रहण करने वाला मानव जाती का सदस्य एक महिला ही थी। इसके अतिरिक्त पहली कृषक, पहली भोजन पकानेवाली, पहली प्रकृति की संरक्षा करने वाली, पहली कारीगर (बुनाई, मिट्टी के बर्तन बनाना, चित्रकारी) प्रथम गृह निर्माता, पहली गायिका और नर्तकी और, इसके साथ ही संस्कृति के सृजन में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करने वाला व्यक्ति मानव जाति में कोई था तो वे महिलायें ही थी। आज के युग में भी हम देखते है की जीवन और संस्कृति से जुड़े हुये मूलभूत पक्षों के बारे में सर्वाधिक गहन जानकारी महिलाओं को ही होती है।
    यदि हम अपने जीवन के छोटे से छोटे पक्षों को ध्यान से देखे तो हमे यह समझ में आयेगा कि हमारी जिन्दगी के संवारने के साथ ही हमारी परंपराओं, हमारे अनुष्ठान, हमारे धर्म, हमारे रीतिरिवाज, हमारी कला और शिल्प के बारे में हमारी पहली शिक्षिका हमारी माँ ही होती है। शायद इसीलिये चूंकि मानव जीवन में स्त्री की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। हम अपने देश को मातृभूमि और अपनी भाषा को मातृभाषा कहते है। यह एक अजीब संयोग की बात है की शिशु जहां बैठने और चलने की शुरूवात माँ की देख रेख में करता हैं, अपने जीवन के पहले बोल भी माँ से ही सीखता है, और वह भाषा उसके समूचे जीवन के लिये उसे उसकी अपनी भाषा के रूप में पहचान दिलाती है, उसे भी वह अपने माँ से ही सीखता है। वे वर्तमान के समय में संस्कृति के विविध पक्षों के क्षीणता की ओर जाना एक बहुत ही चिन्ता का विषय है, और अपेक्षा है कि इसके संरक्षण और पुनर्जीवीकरण में महिलायें ही सार्थक योजना प्रदान कर सकती है। यह एक अत्यंत दुःचिन्ता का विषय है की आज पूरी दुनिया में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं में से कोई एक भाषा दो सप्ताह में विलुप्त हो रही है और इसके पिछे कारण यह है कि उस भाषा को मातृभाषा के रूप में बोलने वाले समाज, संस्कृति के लोग अपने आस-पास की किसी अन्य भाषा को अपने जीवन में अंगीकार कर लेते है। विलुप्त होने वाली इन भाषाओं में प्रमुख रूप से वे भाषायें है, जो कहीं न तो शिक्षण की भाषा और न ही राजभाषा। इसके अतिरिक्त बड़ी भाषाओं का समूचे दुनियां में इस तरीके से प्रचार-प्रसार हो रहा है कि अब विश्व के साथ ही हिन्दुस्तान और कहीं कहीं छत्तीसगढ़ में भी पारंपरिक रूप से बोले जाने वाली कतिपय स्थानीय भाषाओं के प्रयोग में कमी होने का संकट गहराने लगा है। छत्तीसगढ़ के संबंध में यदि कहा जाये तो यहां बोली जाने वाली प्रमुख भाषा छत्तीसगढ़ी, इनके बोलने वालों की संख्या के आधार पर भारत वर्ष के लगभग 12वीं सबसे ज्यादा बोलने वाले भाषा का स्थान रखता है और समूची दुनियां की भाषाओं के साथ इसकी गणना करे तो इसे विश्व की 50वीं सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं का दर्जा प्राप्त है।  छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त लगभग 140 वर्षों से आसाम के चाय बागानों में रह रहे आप्रवासी छत्तीसगढ़ी बागान कर्मियों की भी मातृभाषा है और नागपुर, टाटानगर तथा देश के कई स्थानों में भी, काफी संख्या में कई दशकों से निवास कर रहे छत्तीसगढ़ के लोग अभी भी छत्तीसगढ़ी को अपनी मातृभाषा के रूप में प्रयोग कर रहे है। आसाम में छत्तीसगढ़ी अप्रवासियों की संख्या 15 लाख से भी उपर है। उनकी यह पीढ़ी छत्तीसगढ़ से आसाम पहुंचने की बाद की संभवतः 4-5वीं पीढ़ी है। उनसे बात करके सुखद आनंद की अनुभूति होती है जब वे यह विनय करते है कि हमें हिन्दी तो ठीक से नहीं आती यदि आप छत्तीसगढ़ी या असमियां में बात करे तो हमे आपसे वार्तालाप करने में सुविधा होगी। बागान में चाय की पत्तियां तोड़ते तोड़ते इन अप्रवासियों ने कितनी विपरीत परिस्थिति होते हुये भी अपनी मातृभाषा और छत्तीसगढ़ी परंपराओं को सहजने का माद्दा मन में बनाया होगा, और उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया होगा। यह वंदनीय और अनुकरणीय है। वहां रहने वाले शंकर साहू जी से जब बात हुई उन्होंने कहा इन सब की जिम्मेदारियां हमारे यहां महिलाओं पर ही है जिनके चलते हमारी भाषा और संस्कृति यहां अभी भी फल फूल रही है। हम पुरूष तो बाहर काम करते है, और हमारे जीवन में छत्तीसगढ़ी का उपयोग तब ही होता है जब हम अपने घर में होते है या अन्य छत्तीसगढ़ीयों की बीच।
    जहां एक ओर लगभग 150 वर्षों से छत्तीसगढ़ से आसाम गये लोगों के बीच अभी भी अपनी मातृभाषा के प्रति यह अगाध प्रेम है, छत्तीसगढ़ में ही, खासकर शहरों में रहने वाले, पढ़े लिखे लोगों के बीच छत्तीसगढ़ी विलुप्त होती जा रही है। यह एक दुषचिन्ता का विषय है। स्त्रियों ने संस्कृति के तमाम पक्ष, जिसमें भाषा भी सम्मिलित है, को अज्ञात काल से संधारित किया है, फलस्वरूप वे संस्कृति की धारित्रि होने के साथ ही संवाहिका भी है। उनकों निश्चित ही संस्कृतियों को बिगाड़, उसके स्वरूप में बदलाव और पारंपरिक रीतिरिवाज, अनुष्ठान, धार्मिक कृत्य, आदि में क्षरण उन्हें कचोटता ही होगा और अपेक्षा है वे इसके विरूद्ध बयार चलाने की कोशिश करेंगीं ताकि जिस तरह से उनकी माँओं और सासों ने इसे बचाया और सहेजा है वे भी बचा और सहेज कर अपनी बेटियों और बहुओं को सौंप सके।
    वर्तमान में यह भी एक विचित्र विडंबना है कि इस धारित्रि को ही अपनी अस्तित्व और जीवन की रक्षा में अनेक विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा है। समूची दुनियां में आज महिलाआंे के विरूद्ध इतने अपराध हो रहे है कि सरकारों को इससे निपटने विशेष व्यवस्था करनी पड़ रही है। महिलायें मूलतः परिवार और समाज की संपदा है इन्हें आदर, सम्मान और संरक्षण की अपेक्षा है। क्यांेकि जब ये सुरक्षित रहेंगी तभी सुरक्षित रहेंगे हमारे संस्कार, हमारे आचार-विचार, हमारी ज्ञान पद्धतियों, और हमारी संस्कृति। पुरूष दम ने महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिए अनेक समाजों में सांस्कृतिक-अनुष्ठान के रूप से भी व्यूह रचना कर ली है। यहाँ उदाहरण के रूप में एक प्रकरण को लिखना उत्तम रहेगा। 30 सितम्बर, 2009 को टेलीविजन के न्यूज चैनल में एक समाचार प्रसारित किया गया था जिसमें तमिलनाडु के नमक्काल जिले के एक 300 वर्ष पुराने मंदिर में घटी घटना का विवरण था। यह घटना साल दर साल होती है। दशहरे के दिन वहां हजारों की तादाद में श्रद्धालु पूजा-अर्चना हेतु आते है। समाचार चैनल ने 2009 के दशहरे का विवरण दिखाया जिसमें मंदिर के पुजारी द्वारा 2000 किशोरियों और बच्चों को, जिन्में से कुछ बच्चे 10 वर्ष से भी कम आयु के थे, को लगभग 5 घंटे तक कोडों से पिटाई की गई। पुजारी का कहना था कोड़े मारने से इनकी सारी कमजोरियाँ दूर हो जायेंगी। आश्चर्य जनक बात तो यह है कि इनमें जहां कुछ बच्चों को इसलिए पीटा गया कि वे पढ़ाई मेें कमजोर है, कुछ को इसलिये पीटा गया कि उनकी रजस्वला प्राप्ति में विलम्ब हो रहा है और रजस्वला युवतियों को अपवित्र होने की उपमा देकर कोड़े मारे गये।
    उपरोक्त प्रकरण में अलग-अलग तरह की दलीले दी गई, कुछ ने कहा यह आश्चर्य की बात है 21वीं शदी में ऐसा हो रहा है, वहीं कुछ तथाकथित परंपरावादियों का मंतव्य था की यह उस समाज का निजी मामला है, इसलिये उसमे हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रियों पर लगाये गये सामाजिक नियंत्रण शायद स्त्रियों की सुरक्षा और संरक्षण के लिये अधिक न होकर पौरूष अहनकार के परिणाम स्वरूप ज्यादा बनाये गये है। स्त्रियों की भूमिका मातृवंशीय और मातृस्थानक समाजों में देखने से उनकी महत्ता विशेष रूप से समझी जा सकती है। जहां न केवल वंश, माता के नाम से चलता है वरन संपदा भी माँ की होती है और माँ से बेटियों को हस्तांतरित होती है। यहां पर लगभग 40 साल पुरानी बात का जिक्र करना चाहूंगा कि, यह सही है कि सरकार और संचार माध्यमों ने कोई 2-3 दशक पहले केरल को संपूर्ण साक्षर राज्य के रूप में दर्जा प्रदान किया था। पर 1980 के आसपास एक ऐसी परंपरा से साक्षातकार हुआ, जहां पूर्ण साक्षरता परंपरा के रूप में चली आ रही है। भारत के एक संघ शाषित राज्य लक्ष्यद्वीप मंे मिनीकाय नामक एक छोटा सा द्वीप है, जहां निवास करने लोग माहल नामक भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते है। चूंकि सभी मिनीकाय वासी मुसलमान है इसलिए इस्लाम से संबंधित धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने के लिये मिनीकाय में माहल को पढ़ने लिखने की दक्षता पूरे द्वीप वासियों के बीच विद्यमान है। माहल दिवेहीताना नामक लिपि में लिखि जाती है यह लिपि जो अरबी या उर्दू की तरह दायें से बांये लिखी जाता है। दिवेहीताना सिखाने का दायित्व लगभग घर में माताओं के पास ही होता है। मिनीकाय में स्कूलों में तब देखा गया कि बच्चों के नाम के आगे रजिस्टरांे में पिता के नाम के स्थान पर माता का नाम लिखा जाता था। शेष राष्ट्र में भले ही अब माता और पिता दोनों के नाम लिखे जाते हैं। सभ्यता की शुरूवात से पहले भी शायद जैविक कारणों से चूंकि परिवार जैसी इकाई की तब स्थापना नहीं रही हुई होगी, तो शिशु का मातृत्व तो पक्के तौर पर जाना जा सकता था, क्योंकि वह एक माँ की कोख से जन्म लेता था, भले ही पितृत्व अज्ञात हो।     सभ्यता के चरणों के इन्हीं अराजक परिस्थियों को नियंत्रित करने के लिये परिवार, नातेदारी, धर्म, अपने बच्चे को पालने के लिये आर्थिक उपार्जन और इसके लिये आवश्यक तमाम ज्ञान पद्धतियां स्त्रीयों की ही देन है।
    हमने दादी-नानी की कहानियां और दादी-नानी के नुसखे जैसे शब्द तो सुने पर कभी दादा-नाना की कहानियां और दादा-नाना के नुसखे कहीं सुनाई नहीं देता। स्त्रियों की सांस्कृतिक भूमिका को उन क्षेत्रों में भी महत्ता प्रदान की जाती है जहां संस्कृति के संरक्षण के नाम पर अलगाव वादी गतिविधियां चलती हैं। अशान्त उत्तर पूर्व क्षेत्र के कतिपय राज्यों के बारे में हम सुनते ही रहते हैं, वहीं के एक राज्य मणीपुर से एक संदर्भ यह प्रस्तुत है। आज मणीपुर सर्वाधिक अशान्त राज्य माना जाता है, किन्तु वहां अशांति फैलाने वाले लोगों को भी माताओं के समक्ष झुकना पड़ता है। एक बार अतिवादि तत्वों ने फरमान जारी किया कि कोई पान या तामुल नहीं खायेगा, क्यांेकि यह मणीपुर की मौलिक वस्तु नहीं है। वस्तुतः मणीपुर में पान या तामुल खाने का अत्यधिक प्रचलन है, जिसके खाने वालों में स्त्रीयां भी सम्मिलित है। मणीपुरी माताओं ने इस धमकी का, कि पाने खाने वाले के गाल को ब्लेड से चीर दिया जायेगा, के खिलाफ सड़कों में आकर मोर्चा खोला और अतिवादियों को उनके सामने झुकना पड़ा। मणीपुर में सभी क्षेत्रों में महिलाओं की विशेष भूमिका को पुरूष वर्ग भी महत्ता प्रदान करता है, परिणाम स्वरूप आज छत्तीसगढ़ से कम आबादी और क्षेत्रफल वाले इस राज्य में मेरीकॉम और उसके जैसे कितने तमगे प्राप्त करने वाली महिलाओं ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत में अपना नाम कमाया है। मणीपुर के बड़े शहरों के साथ ही छोटे स्थानों पर भी एक छोटा सा बाजार या विक्रय स्थल होता है जिसे ईमा मार्केट अर्थात माताओं का बाजार कहा जाता है। मणीपुरी महिलायें अपनी खेती और बागवानी के पैदावारों के साथ ही अनेक चीजों का विक्रय करने इस स्थान पर आती है। उनकी मान्यता है कि ईमा मार्केट में विराजने वाली देवी कभी उन्हें खालीहाथ घर वापस नहीं लौटने देगी। आतंक ग्रसित इस राज्य की राजधानी इम्फाल के श्री गोविंद जी मंदिर में प्रातः पूजा के समय लगभग दो तीन सौ माताएं प्रतिदिन इकट्ठा होकर संकीर्तन करती है और इतने विपरीत परिस्थितियों में भी कोई व्यवधान नही करता। माताओं की निडरता और गोविद जी की पूजा अर्चना की परंपरा का निर्वहन किसी भी व्यवधान से समझौता नही करता। माताओ के यह विश्वास और इस कर्मठता को अतिवादी भी नहीं छूं पाये है शायद इसलिये कि उनको इस बात का भरपूर ज्ञान है, कि मातायें है तो समाज है, और मातायें है तो संस्कृति है।
    अतः पूरी समाज से अपेक्षा है कि जन्मदात्री, संस्कार दात्री, और संस्कृति धारित्रि तथा संस्कृति समवाहिका का समूचे मानव समाज में महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता है जिसे संरक्षित करना और सशक्त बनाना समाज के हर सदस्य का दायित्व है।
- अशोक तिवारी
   

गढ़ कलेवा : पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजनों के संरक्षण हेतु अभिनव प्रयास

आज आधुनिकीकरण की दौड़ में जब कि पूरा विश्व एक ही गांव अर्थात ग्लोबल विलेज का रूप लेने लगा हैं, मानव संस्कृति के विविध पक्षों में तेजी से बदलाव आने लगे हैं। इन बदलाव के क्रम में पारंपरिक खान-पान में भी अत्यधिक प्रहार हो रहा है। परंपराओं को अदृश्य होने जाने की इस स्थिति में जब कि अनेक पारंपरिक ज्ञान पद्धतियां विलोप की कगार की ओर जाने पर हासिये तक पहुंच गयी है, उन्हें बचाना और फिर से केन्द्र में स्थापित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। अलग-अलग क्षेत्रांे में संस्कृति के इन विविध पक्षों के संरक्षण-संवर्धन हेतु कतिपय प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु खाद्य परंपराएं ऐसा क्षेत्र है, जिनपर तत्काल कार्य किए जाने की आवश्यकता है।

आधुनिकीकरण की इस दौर में ऐसे अनेक कारण है जो देशज खान-पान को प्रभावित कर रहे है, जिनमें प्रमुख है लोगों का गांवों से शहर की ओर पलायन और गांवों में शहरों की घुसपैठ जिसके चलते आज बनने वाले मकानों का वैसा उपयोग कठिन है, जैसा पारंपारिक घरों का हुआ करता है। ईंधन के पारंपरिक साधनों की कमी के चलते विश्व व्यापी आधुनिक ईंधन की स्वीकार्यता भी ऐसे कारण है, जिसके फलस्वरूप अनेक पारंपरिक व्यंजनों को तैयार किए जाने में कठिनाई आती है। संचार माध्यमों के विस्तार ने भी इस क्षेत्र में अपनी ऐसी घुस पैठ की है कि वह भी देसज खान-पान को प्रभावित कर रहा हैं।

दुनिया में अनेक देश ऐसे हैं खास कर दक्षिण पूर्व एशिया में थाईलेण्ड, ताइवान, कोरिया इत्यादि, जिन्होंने अपने पारंपरिक व्यंजनों का अपने देश के पर्यटन को बढ़ावा देने इस्तेमाल किया है, और उन्हें इसमें अशातीत सफलता भी प्राप्त हुई है। स्वतः भारत में अनेक राज्य अपने पांरपरिक व्यंजनों को जोर-सोर से प्रचार-प्रसार और विपणन कर उसें शक्ति प्रदान कर रहे है, जिनमें राजस्थान, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी राज्यों आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखित किये जा सकते है। इन राज्यों में तथा ऐसी ही अनेक राज्यों में वहां के पारंपरिक खान-पान के लोकप्रिय करण का कार्य व्यवसायियों द्वारा व्यवासय के रूप में किया जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप वे व्यंजन न केवल उस राज्य विशेष में अपितु देश के अन्य राज्य तथा विदेशों में भी लोकप्रिय हुए है, किंतु छत्तीसगढ़ में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है, शायद इसलिये क्यूंकि छत्तीसगढ़ में हर तरह का व्यापार उन लोगों के हाथ में है जिनका पारंपरिक खान-पान छत्तीसगढ़ी नहीं है। इसीलिए उन्होंने छत्तीसगढ़ व्यंजनों के विपणन की बात शायद सोची नही और अपने-अपने पारंपरिक व्यंजनों तथा बाजार में चलने वाले कतिपय अन्य खान-पान के व्यापार में ही जुटे है। जाहिर है जो आशानी से मिलता है, जो सुलभता से उपलब्ध हो जाता है जनता उसे ग्रहण कर लेती है।

इस परिस्थिति को ध्यान में रख कर छत्तीसगढ़ राज्य की पारंपरिक खान-पान शैली की प्रसारित-प्रचारित संरक्षित करने, उसे अक्षुण्ण बनाने तथा लोगों को सहजता से इनके आस्वादन का अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग द्वारा एक अभिनव प्रयास किया जा रहा है, ‘गढ़ कलेवा’ के नाम से जिसमें फिलहाल कुछ चयनित छत्तीसगढ़ी पांरपरिक व्यंजनों को आगंतूको को सुलभ कराया जा रहा है।

बिहनियां का यह अंक जब आपके हाथों में होगा तब तक ‘गढ़ कलेवा’ शुरू हो गया रहेगा। दर असल विभाग ने महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय स्थिति अपने विभागीय केन्टीन को पूर्णतः पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजन आस्वादन सुविधा के रूप  में विकसित किया है। इस स्थल पर वर्तमान में चीला, फरा, घुसका, अंगाकर, बफौरी, देहरहरी, बरा, बोबरा, मालपुआ, करीलाडू, खाजा आदि लगभग तीन दर्जन छत्तीसगढ़ी व्यंजनो को उपलब्ध कराया जा रहा है।

गढ़ कलेवा स्थल को एक सुसज्जित छत्तीसगढ़ी गांव के परिवेश में रचा गया है, जिसमें आगंतुकों के बैठने के लिए माची, खटिया सदृश्य व्यवस्था की गयी है और बर्तन भी कांसे के ही प्रयोग में लाए जा रहे हैं। परिसर की प्रकाश व्यवस्था भी इस तरह से की गयी है कि परिसर पूर्णतः ग्रामीण ही महसूस हो। अतिरिक्त आकर्षण के रूप में पारंपरिक छत्तीसगढ़ी गीत और लोकधुन वाद्य-वृंदों के रूप में बजते रहता है।

गढ़ कलेवा यहां के देसज खान-पान की दिशा में एक मील का पत्थर तो हैं ही, यह-वहां आने वालों के लिए एक सुखद एवं चिरस्मरणीय स्थल भी है, आस्वाद की दृष्टि से, सुकून की दृष्टि से और ग्रामीण परिवेश के सौंदर्य का आनंद लेने की दृष्टि से। 

-अशोक कुमार तिवारी

छत्तीसगढ़ के आदिवासी परिदृश्य

भारत के संविधान के धारा 366(25) मा संविधानंेच के धारा उपर के अधार मा अइसना समाजिक समूह मन के नाम दिए हावय जेला भारत के राष्ट्रपति हर अनुसूचित जनजाति के दरजा दे हांवय। हमर देश में ए अनुसचित जनजाति मन ला आदिवासी के नाम के जाने जाथे। अभी ए सुची मा 705 आदिवासी समाज मन के नांव दर्ज हे। भारत मा 2011 के जनगणना के हिसाब ले देश के कुल आबादी के 8 प्रतिशत ले घलाय जादा जनसंख्या अदिवासी मन के हावय। ए मन में राज्य वार हमन बात करीन तव सबले जादा करीबन 95 प्रतिशत मिजोरम मा हांवय अउ सबले कमती 0.4 प्रतिशत गोवा मा हांवय। भारत मा आज जतका आदिवासी जन संख्या हावय आंेमाले सबले जादा 14 प्रतिशत ले अधिक मध्यप्रदेश म रहिथे। एमा दूरसा नंबर छत्तीसगढ़ के हे जिहां देश के 7 प्रतिशत ले अधिक आदिवासी मन रहिथे। भारत सरकार हा आदिवासी दरजा दे बर जउन सामाजिक अवस्था ला आधार बनाए गे हे तेखर हिसाब ले अइसना समाजिक समूह जउन मन मा आदिम जीवन पद्धति के लक्षण हे, जिनखर अपन विशिष्ट संस्कृति हे, जउन मन बाहर के मनखे अउ जगह  ले मिलब जुलब मा लजकुरहा हॉवय, जिखर मन के भौगोलिक रूप से अलग इलाका हे, अउ जउन मन पिछडा़ पन के स्थिति मा हांवय तउन मन मा आदिवासी के रूप से सरकार हर सूचीबृद्ध करे हांवय।

मीडिया मा, राजनीति मा अउ बौद्धिक चरचा मन मा आदिवासी मन के बारे मा बहुत बात करे जाथे, लेकिन हमन यदि असली आंकड़ा मन मा देखी तव हमन ला पता चलथे के देश के आने मनखे मन सरीक आदिवासी मन घलाय विकास के भागीदार हांवय। आजादी मिले के बाद के 50-60 साल मा एमन मा शिक्षा अउ-शिक्षा मा आधारित काम काज करइया के संख्या मा घलाय आन मन सरीक ही बढोतरी होय हावय। जनसंख्या मा बढो़तरी के मामला मा एक खास बा़त हे कि 2001 से 2011 के बीच मा जिहॉ 2001 के जनगणना मा इनखर मन के संख्या मा 17.69 प्रतिशत के बढो़तरी पाए गे रिहीस उहें 2011 मे ये बढो़तरी 23.66 प्रतिशत हो गे रिहीसे। महिला-पुरूष अनुपात मा आदिवासी मन के बीच स्थिति हा देश के आने मनखे मन ले बहुत अच्छा हे। देश म 1000 आदमी के पीछे 940 महिला हांवय लेकिन आदिवासी समाज म 1000 मनखे मन के पीछे ए संख्या हर 990 हे। देश के कुल जन संख्या मा आदिवासी मन के प्रतिशत मा क्रमशः काफी बढा़ेतरी होए हावस। 1961 मा देश के कुल आबादी मा आदिवासी मन के संख्या 6.9 प्रतिशत रिहीस हे जाउन हा 50 साल बाद 2011 मे बढ़ के 8.6 प्रतिशत हो गेहे।

छत्तीसगढ़, के लिए ए हर एक बहुत बड़ संजोग अउ सौभाग्य के बात आए कि इहॉ हमर पुरखा मन के जीवन पद्धति के उदाहरण के रूप में आदिवासी भाइ बहिनी मन के संख्या काफी अधिक हे। छत्तीसगढ़ म ओइसे तो सूची म 43 जनजाति मन के रहना बताए गेहे, लेकिन सच्चाई म इहां 31 जनजाति समूह ही निवास करथें अउ उकर मनके कुल संख्या राज्य के संख्या के अनुपात म 2011 के जनगणना म 30.6 प्रतिशत हे। ये संख्या ह 2001 के जनगणना के तुलना म 1 प्रतिशत कम हावय, जउन ह शायद राज्य बने के बाद बाहर ले आदमी मन के इहां आके बसना हावय। छत्तीसगढ़ म 5 अति पिछड़ी जनजाति हावय, जिनखर मन के नाम हे कमार, बिहोर, बइगा, पहाड़ी कोरवा अउ अबूझमाड़िया। इखरो मन के बीच भी अइसे कोनो बात देखेबर नइ मिलय के इखर मन मा आने आदिवासी म ले कमती विकास होय होहय।

एक ठन खास बात हे के 2001 म छत्तीसगढ़, मा 1083 गांव अइसनहा रिहिन जेमा सोला  आना रहइया मन आदिवासी रिहीन। ए गांव मन के संख्या हा घटके 2011 मा 1076 होगे। एखर मतलब ए आय के बाकी 5 गांव मन मा आने मनखे मन आके घला बसगंे।

मनखे मन के शिक्षा, शहरीकरण, नउकरी आदि के सेती इहा-उहा जाना अउ बसना हा अइसनहा कारण ए जेखर सेती आदिवासी मनके संख्या मा कुछ बदलाव देखे जाथे। दक्षिण बस्तर मा जारी हिंसक घटना मन के सेती घलाय मनखे मन अपन गांव ले आने गांव मा बसे लगे हे। पिछला महीना म एक ठन अखबार हा छापे रिहिस के बस्तर नारायणपुर, बीजापुर दंतेवाड़ा, अउ कांकेर मा एखर सेती आदिवासी जनसंख्या के बृद्धिदर मा कमी देखे गे हावय।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज मन हमर राज्य के सिंगार आय। कहे जाथे के आदिवासी समाज के ज्ञान परंपरा मन संपूर्ण रहिथे अउ ओमनला कोनो आने उपर आश्रित रहेके जरूरत नई परे। इतिहास अउ पुरातत्व मन राज्य के हजारो साल के बात ल कहिथे जेमा किसम किसम के नाम आथे फेर ओ मन मा कोनो आदिवासी समूह के नाव नइ आवय। जबकि हमन देखथन अउ मानथन के आदिवासी मन अंजान समय ले ही ये धरती के सोभा आय। जउन मन इहां के परकिरती अउ संस्कृति के बनवइया, ओमा जीवइया अउ ओला जीवित रखइया आयं।
- अशोक तिवारी

भाषा अऊ राजभाषा: साहेब मन के भोरहा

अड़बड़ आनंद के बात हे के छत्तीसगढ़ी ला छत्तीसगढ़ के एक ठन राजभाषा बनाए गे हावय। 14 अगस्त 2007 के एला राजभाषा के दरजा दे गे रिहिस, माने आठ बछर गुजर गे हावय अऊ हांसिल आया सुन्न सरीख हालत अभी ल घला बने है। मोला ए विषय में छत्तीसगढ़ सरकार के राजपत्र में छापे गे अधिसूचना देखे बर मिलिस। ओ अधिसूचना मा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव सबके काम लिखे हावय फेर राजभाषा आयोग के काम के जिकिर नई ए। मैं आज तक जतका विभाग-संस्था मन के एक्ट ला देखे हावव सबो में उनखर मन के उद्देश्य अऊ काम निर्धारित रूप मा लिखे गे रहिथे। फेर छत्तीसगढ़ी राजभाषा के एक्ट मा काबर एला नई लिखे गेहे समझ मा नई आवय। अऊ उंहा के बूता करइया मन मानले जनता के उमीद मुताबिक बूता नई करय, त ओमन ला सायद एखर अजादी हे, काबर के ओमन राजभाषा बर काय काम करिही तेला तो नई लिखे गे हें। एकाएक ठन अउ बात हे के आयोग अपन विवेक ले छत्तीसगढ़ी भाषा या साहित्य के संबंध में कार्यवाही कर सकत हे। अरे बबा रे, माने फुल आजादी, जौन चाह करलो, आपका छूट हे। अउ नई करहू तभो कोनो कुछू नई कहे सकय।

अब एक घव ए डहर देखे जाए के राजभाषा आयोग हर का करत हे। एखर बनाए के परिचय मा लिखे हावय के ‘‘राज्य के विचारों की परंपरा और राज्य की समग्र भाषायी विविधता के परिभाषा, प्रचलन और विकास करने तथा इसके लिए भाषायी अध्ययन, अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, सृजन तथा अनुवाद, संरक्षण, प्रकाशन, सुझाव तथा अनुसंधान के माध्यम से छत्तीसगढ़ी पारंपरिक भाषा को बढ़ावा देने हेतु शासन में भाषा के उपयोग को उन्नत बनाने छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन करने हेतु अधिनियम’’। अब एला धियान ले देखब तब समझ मा आथे कि एमा जउन बात लिखे गे हे ओ सब संस्कृति विभाग, साहित्य अकादमी या फेर अभिलेखागार के काम आय। एक दम आखरी लाइन मा जौन बात केहे गेहे, माने ‘‘शासन में भाषा के उपयोग’’ ला बढ़ाना हे, तेखर बर कोन भाषा मा बढ़ाना हे तउन लिखे नई गेहे। ए अधिनियम हर राजपत्र मा 3 सितंबर 2010 के छपे रीहिसे, अउ आज पूरा पांच साल हो गेहे, एला छत्तीसगढ़ी भाषा मा नई जारी करे गेहे। अगर छत्तीसगढ़ी ला सिरतोन में राजभाषा के इज्जत दे जातिस, त आज तक कम से कम ए हर तो छत्तीसगढ़ी मा प्रकाशित होईच गे रतिस।

राजभाषा काला कहिथे तेखर व्याख्या मा संविधान के धारा 343 मा करे गे हें। ओमे केहे गेहे के जउन भाषा मा सरकारी कामकाज करे जाही ओ हा राजभाषा आय, अउ भारत मा राजभाषा के रूप मा हिन्दी अउ अंग्रेजी दू ठन भाषा ला मान्यता प्रदान करे गे हावय। ऐखरे सेती केन्द्र सरकार के सब कामकाज मन ए दूनो भाषा मा करे जाथे। मैं कई घव इहां ए सुनथवं के छत्तीसगढ़ी ला आठवीं अनसूची मा शामिल करवाना पहिली प्राथमिकता के काम आय अउ एखर बर राजभाषा आयोग कभू-कभार कुछू कांही संगोष्ठी, प्रकाशन बगैरा करत रहिथे, जबकि आठवीं अनुसूची मा छत्तीसगढ़ी के शामिल होना - नई होना, एखर राजभाषा के रूप में इस्तेमाल ले बिलकुल अलग बात ए। त्रिपुरा मा काकबरोक, मेघालय मा खासी अउ गारो, मिजोरम मा मीजो, पांडिचेरी मा फ्रांसीसी अउ लक्ष्यद्वीप मा दिवेही वगैरा मन अइसनहा राजभाषा ऑय जौन मन आठवीं अनुसूची मा शामिल नई ए तभो ले ओ राज्य मन मा ए भाषा मन मा सरकारी कामकाज पूरा अधिकार के संग होथे। छत्तीसगढ़ मा घला जरूरत हे के राजभाषा के मतलब ला समझ के छत्तीसगढ़ी ला राज के कार्यालय मन मा काम करेबर बढ़ावा दिए जाय।

एखर बर जरूरी हे के सलाना कतका प्रतिशत कम से कम काम छत्तीसगढ़ी में हर आफिस मा करे जाए तेखर लक्ष्य निर्धारित करना चाही। छत्तीसगढ़ी मा काम करने वाला करमचारी मन ला प्रोत्साहन करे बर प्रतियोगिता अउ इनाम के घला बंदोबस्त करे जाना चाही। हर जिला मा राजभाषा कार्यान्वयन बर समिति के गठन करे जाए तेखर मुखिया उहां के कलेक्टर मन ला चाहे तो बनाए जा सकत हे। छत्तीसगढ़ी ले हिन्दी अउ हिन्दी ले छत्तीसगढ़ी मा अनुवाद बर मनखे रखे जाए। सब कर्मचारी मनला छत्तीसगढ़ी मा काम करे बर प्रशिक्षण देबर लगातार कार्यशाला मन के आयोजन करे जाए अउ सरकारी आदेश, विज्ञप्ति, विज्ञापन, निविदा राजपत्र अउ अन्य दस्तावेज मन ला दुनो भाषा या फेर छत्तीसगढ़ी भर मा प्रकाशित करे जाए।

आठवीं सूची मा शामिल होए बर तो देश के 38 भाषा मन लाइन मा लगे हावय। छत्तीसगढ़ी कब एमा शामिल होही तेखर अगोरा मा समय ला खुवार झन करे जाए, अउ एखर बर संगोष्ठी करके या फेर किताब छाप के अपन ताकत ला खरचा झन करके, वाकई मा अइसनहा काम करे जाए जउन मन राजभाषा के असली काम आँय। मतलब छत्तीसगढ़ी ला राजकाज के काम के रूप में सरकारी काम बर बढ़ावा देना, अउ इहां के दू करोड़ ले उप्पर मनखे जिनकर महतारी भाषा छत्तीसगढ़ी आय ओंमन के बीच ए बात के एहसास कराना के छत्तीसगढ़ी हर छत्तीसगढ़ के राजभाषा आय, अउ एमा काम करेमा संकोच न करके गर्व महसूस करँय। भारत के संविधान मा लिखे गे हे कि हर कोई ला अपन मातृभाषा मा प्राथमिक शिक्षा पाए के अधिकार हावय, राजभाषा वाले मन ला चाही के ओमन एखरोबर जोर लगाके ए काम ला पूरा करय। किताब छपाई अउ कविता पढ़ई तो कहंू भी अउ कभी भी हो सकत हे अउ होवत रहिही। अभी तो देश मा सबले जादा बोले जाने वाले भाषा मा 12वाँ नंबर के भाषा, अउ दुनियाँ के 50वाँ सबले जादा बोले जाने वाले भाषा छत्तीसगढ़ी के प्रचार-प्रसार बर सिरतोन के काम संकलप के साथ करे जाय।
- अशोक तिवारी
Teejan Bai (born 24 April 1956) is an exponent of Panday a traditional performing art form from Chhattisgarh in which she enacts tales from the Muhabharata with musical
Teejan Bai was born in village Ganiyari, 14 km north of Bhilai to Chunuk Lal Pardhi and his wife Sukhwati she belongs to Pardhi (Scheduled Tribe) of Chhattisgarh State
The eldest among her siblings, at heart her maternal grandfather, Brijlal Pradhi, recite Mahabharata written by Chhattisgarh writer, Sabal Sinh Chauhan in Chhattigarh Hindi she instantly took a liking of it and soon memorized much of it, and later trained informally under urmed Singh Deshmukh

Career
At age 13, she gave her first public performance in a neighbouring village, Chandrakhuri (Durg) for Rs.10, singing in the Kapalik Shaili (style) of 'Pandavani, the sitting style. Contrary to the tradition, Teejan Bai performed standing singing out loud in her typical guttral voice and unmistakable verve, entering what was till now, a male bastion.
within a short time, she became known in neighbouring village and invitations poured to perforn at special occasions and festivals.
Her big-break came, when Habib Tanvir, a famous theatre personality from Madhya Pradesh, noticed her talent, and she was called to perform for then Prime Minister, Indira Gandi. There was no turning back from then on, in-time she received national and international recognition, a Padma shri in 1988 Sangeet Natak Akademi Award in 1995, Padma Bhushan in 2003. and D. litt from two versittcs of chhattisgarh
Beginning in the 1980s, She travelled all over the world as a cultural ambassador, to countries as far as England, France, Switzerland, Germany, Turkey, tunisia, Malta. Cyprus, Romania and Mauritius.
Today she continues to enthrall audiences, the world over with her unique folk singing and her powerful voice; and pass on her singing to the younger generation.

Personal life
Though shse was married at 12, she was ostracised by community, the 'Pardhi, tribe, for singing Pandavani, being a woman. She build herself a small hut and started living on her own, borrowing utensils and food from neighhours, yet never left her singing, which eventually paid off for her. She never went to her first husband's home and later split (dicorce) In the following years, she was married twice, though none of her marriages succeeded. Latter she fell in love with Tukka Ram, a former harmonium player in her troupe, and they three children.
Today she lives with her fourth husband, Tukka Ram, her five children, in Sector i, Bhilai, where she is employed at the Bhilai Steel Plant. She travels the world for her perfomances. She is also a grandmother (aged 52)

Performance Style
Pandavani, literally means stories of Pandavas, the legendary brothers in Mahabharat, and involves enacting and singing with instrumental accompaniment an ektara or a tambura the tambura becomes her only prop during her performances, sometimes she uses it to personify a gada, mace of Arjun, or at times his bow or chariot, while others it becomes the hair of queen Draupadi, allowing her to play various character with effective ease and candour. Her acclaimed performances are of, Draupadi cheerharan, Dusharan, Dushasana vadh and Mahabharat Yudh, between Bhishma and Arjun.

Awards
•    1988 Panma Shri
•    1995 Sangeet Nayak Akademi Award
•    2003 Hon. D. Litt, Bilaspur University
•    2003 Padma Bhushan
Today Teejan Bai will prosont the cheer haran paasng team mahubharat : whill the will ramate in her mesmevisrg style, the slory of unwarappung of totn of Draupati by Dushashra, her prayer to lord knshra to sare her and other othna relayeen scanecer.

While Pandavani was about fluttering out of the chysalia, little Teejan was picking up the first inflexions of this traditional art form. Ganiyari village, some 14 kms north of Bhilai, never saw much riches, the familles subsisted on minimums though some did send their children to school. Not chunuk Lal Pardhi and his wife Sukhwati. In their household there was just enough to keep the hearth burning, education was a luxury but Pandavani was a way of life. Growing up amongst four siblings, Teejan Bai often heard her grandfather regale the family with the stories from the Mahabharat. Teejan, not even 12 then and already married, was enamoured by the folk art. She picked up the basics ans trained informally under Umed Singh Deshmukh.
At 13, she gave her first performance in village Chandrakhuri (Durg) for a whopping ten rupees.
''What made you break the male bastion and take to Pandavani? I ask her as she lay ill in her recently built pucca house in Ganiyari. ''It is god's gift nobody can do this own,'' affirms Teejan Bai It was an extremely difficult journey strewn with sacasm ans jeers.
My Parents did get daunted by all this but I always fought back. ''Between creating a niche for herself and braving the taunts, Teejan Bai was also scraping through bad marriages.
''Indian women have this amazing ability to tolerate things, keep the pain to their hearts and continue doing what they are supposed to do, I did exactly that,''says Teejan Bai, her eyes laden with pain and the perseverance that has always held her in good stead.
From Chandrakhuri village and a payment of Rs. 10, Teejan Bai went to perform in several countries abroad and was honored by the Indian Government with a Padma Shri and a Padma Vibhushan.
Living in Bhilai with her family and grandchildren, Teejan Bai says she is not tied down by any habits, nor has any regrets that none of her children have taken to Pandavani. My students will carry forward this tradition, what if I my children won't Art cannot happen unless Ma Saraswati blesses You''.
Ask her what part of the world is her favorite and pat comes the reply, ''Paris.''
That cloudy August afternoon, when I wasded through nallahs adn sloshed my shoes in mud, Teejan Bai was not her usual self. Her voice was feeble and i had to sit on the floor to hear her, she was barely audible.
As I was about to leave, i hea a ghungroo clink from under the jaded blaket. I ask Teejan Bai about it, she smiles and shows me her new broad silver anklet. The gleam in her eyes return, thr gold rings in her brown fingers glimmer once more, the batel leaf stains her mouth, but nothing engrosses her. she touches the anklet and smiles again. You know that's her heaven.
-Ashok Kumar Tiwari