Saturday 28 May 2016

धारित्रि: परंपराओं की

मैंने अपनी सास से सुना था, और उसका भरपूर पालन करने की अब तक कोशिश की है, पर पता नहीं मेरी बहुयें कर पायेगें या नहीं। अब देखो ना हम सब गांव छोड़ कर शहर आ गये, तो मैं इस बात से चिन्तित हुई कि कुल देवता की पूजा नहीं हो रही है। मेरे बड़े बेटे और बहू ने मेरी चिन्ता दूर की, और कुल देवता को गांव से शहर ले आये। हमारे कुल देवता का स्थान रसोई घर में होता है जिसके प्रतीक के रूप में एक छोटा सा चबूतरा होता है। इस चबूतरे के उपर हम लोग दशहरा और होली के अवसर पर कुल देवता की पूजा करते है। मेरी सास ने बताया था कि हमारे कुल देवता का नाम तुरकी देव है, जो मुसलमान थे। ऐसा कहा जाता है कि हमारे वंश के सब लोगों को एक संघर्ष में मृत्यु का सामना करना पड़ा, तब एक मुसलमान ने हमारे पूर्वजों में से एक युवक को अपने घर के अन्नागार (कोठी) में छुपाकर बचाया, और संघर्ष की समाप्ति के बाद उसकी एक हिन्दू बच्चे की तरह ही लालन पालन की उसका विवाह किया, और उसकी पिता की सारी संपत्ति उसे सौंप दी। अर्थात चूंकि हमारे पितृ पुरूष के रक्षक एक मुसलमान थे इसलिए हम उस महान व्यक्ति को तुरकी देव के नाम से कुल देवता के रूप में पूजते है। मैंने इसके बारे में सारी बाते और पूजा के सभी विवरण अपनी एक बहू को लिखवा तो दिया है पर क्या मालूम मेरे जाने के बाद क्या होगा। क्योंकि अभी ही मैंने देखा की एक दिन कुल देवता के आसन पर जूठे तवे को रख दिया था और आज-कल की नई-नई बहू-बेटी तो कुल देवता के स्थान रसोई घर में बिना नहाये और चप्पल पहने घुस जाती हैं।
    ये कथन एक वृद्ध महिला के थे जो अब इस दुनिया में नहीं रही, उन्होंने यह भी बताया था कि परम्पराओं, रीतिरिवाजों और अनुष्ठानों की सारी जिम्मेदारी का बोझ औरत पर रहता है। आदमी की भूमिका शायद एक परिवार के पालक के रूप में ही अधिक रहती ह,ै जो धन का उपार्जन कर पालन पोषण करता है। सचमुच उनकी बाते कितनी सही है। शायद सभी को आभास होता होगा। आज चाहे जन्म से संबंधित संस्कार हो, चाहे विवाह से संबंधित, चाहे मृत्यु से संबंधित, उनके विस्तारण के सभी चरण और नेंग केवल महिलाओं के ज्ञान क्षेत्र तक ही सीमित रहती हैं, और ऐसे तमाम अवसरों पर परिवार और सगे संबंधियों में, जानकार सयानी महिला की खोज की जाती है, जिनके बारे में यह अपेक्षित रहता है कि वे सारे संस्कारों के बारे में भली भांती जानती हांेगी। शिक्षा के प्रसार-प्रचार, शहरीकरण, अन्य संस्कृति के क्षेत्रों में निवास, और आधुनिकता के कारण वर्तमान समय में युवा महिलाओं को इन तमाम बातों को सीखने का अवसर ही नहीं मिल पाता, तो वे बिचारी जानेंगे ही क्या? करेंगे ही क्या? और अपनी अगली पीढ़ी को सिखायेंगे ही क्या?
    भारतीय संस्कृति के क्षेत्र की एक अध्येता डॉ. मधु खन्ना ने अपने एक लेख में लिखा है कि सभ्यता के साथ स्त्री के संबंधों को एक नये सिरे से जानने समझने की आवश्यकता है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जबकि, न सिर्फ इस देश वरन समूचे दुनियां की पौरूष, दंभ, उपेक्षा, अपमान और प्रताडना का कई बार सामना करना पड़ता है, अधिक प्रासंगिक हो जाता है। यहां इस बात को विशेष उल्लेख के साथ करना आवश्यक हो जाता है कि मानव सभ्यता के विकास के सोपन में प्रथम खाद्य संग्रहण करने वाला मानव जाती का सदस्य एक महिला ही थी। इसके अतिरिक्त पहली कृषक, पहली भोजन पकानेवाली, पहली प्रकृति की संरक्षा करने वाली, पहली कारीगर (बुनाई, मिट्टी के बर्तन बनाना, चित्रकारी) प्रथम गृह निर्माता, पहली गायिका और नर्तकी और, इसके साथ ही संस्कृति के सृजन में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करने वाला व्यक्ति मानव जाति में कोई था तो वे महिलायें ही थी। आज के युग में भी हम देखते है की जीवन और संस्कृति से जुड़े हुये मूलभूत पक्षों के बारे में सर्वाधिक गहन जानकारी महिलाओं को ही होती है।
    यदि हम अपने जीवन के छोटे से छोटे पक्षों को ध्यान से देखे तो हमे यह समझ में आयेगा कि हमारी जिन्दगी के संवारने के साथ ही हमारी परंपराओं, हमारे अनुष्ठान, हमारे धर्म, हमारे रीतिरिवाज, हमारी कला और शिल्प के बारे में हमारी पहली शिक्षिका हमारी माँ ही होती है। शायद इसीलिये चूंकि मानव जीवन में स्त्री की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। हम अपने देश को मातृभूमि और अपनी भाषा को मातृभाषा कहते है। यह एक अजीब संयोग की बात है की शिशु जहां बैठने और चलने की शुरूवात माँ की देख रेख में करता हैं, अपने जीवन के पहले बोल भी माँ से ही सीखता है, और वह भाषा उसके समूचे जीवन के लिये उसे उसकी अपनी भाषा के रूप में पहचान दिलाती है, उसे भी वह अपने माँ से ही सीखता है। वे वर्तमान के समय में संस्कृति के विविध पक्षों के क्षीणता की ओर जाना एक बहुत ही चिन्ता का विषय है, और अपेक्षा है कि इसके संरक्षण और पुनर्जीवीकरण में महिलायें ही सार्थक योजना प्रदान कर सकती है। यह एक अत्यंत दुःचिन्ता का विषय है की आज पूरी दुनिया में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं में से कोई एक भाषा दो सप्ताह में विलुप्त हो रही है और इसके पिछे कारण यह है कि उस भाषा को मातृभाषा के रूप में बोलने वाले समाज, संस्कृति के लोग अपने आस-पास की किसी अन्य भाषा को अपने जीवन में अंगीकार कर लेते है। विलुप्त होने वाली इन भाषाओं में प्रमुख रूप से वे भाषायें है, जो कहीं न तो शिक्षण की भाषा और न ही राजभाषा। इसके अतिरिक्त बड़ी भाषाओं का समूचे दुनियां में इस तरीके से प्रचार-प्रसार हो रहा है कि अब विश्व के साथ ही हिन्दुस्तान और कहीं कहीं छत्तीसगढ़ में भी पारंपरिक रूप से बोले जाने वाली कतिपय स्थानीय भाषाओं के प्रयोग में कमी होने का संकट गहराने लगा है। छत्तीसगढ़ के संबंध में यदि कहा जाये तो यहां बोली जाने वाली प्रमुख भाषा छत्तीसगढ़ी, इनके बोलने वालों की संख्या के आधार पर भारत वर्ष के लगभग 12वीं सबसे ज्यादा बोलने वाले भाषा का स्थान रखता है और समूची दुनियां की भाषाओं के साथ इसकी गणना करे तो इसे विश्व की 50वीं सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं का दर्जा प्राप्त है।  छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त लगभग 140 वर्षों से आसाम के चाय बागानों में रह रहे आप्रवासी छत्तीसगढ़ी बागान कर्मियों की भी मातृभाषा है और नागपुर, टाटानगर तथा देश के कई स्थानों में भी, काफी संख्या में कई दशकों से निवास कर रहे छत्तीसगढ़ के लोग अभी भी छत्तीसगढ़ी को अपनी मातृभाषा के रूप में प्रयोग कर रहे है। आसाम में छत्तीसगढ़ी अप्रवासियों की संख्या 15 लाख से भी उपर है। उनकी यह पीढ़ी छत्तीसगढ़ से आसाम पहुंचने की बाद की संभवतः 4-5वीं पीढ़ी है। उनसे बात करके सुखद आनंद की अनुभूति होती है जब वे यह विनय करते है कि हमें हिन्दी तो ठीक से नहीं आती यदि आप छत्तीसगढ़ी या असमियां में बात करे तो हमे आपसे वार्तालाप करने में सुविधा होगी। बागान में चाय की पत्तियां तोड़ते तोड़ते इन अप्रवासियों ने कितनी विपरीत परिस्थिति होते हुये भी अपनी मातृभाषा और छत्तीसगढ़ी परंपराओं को सहजने का माद्दा मन में बनाया होगा, और उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया होगा। यह वंदनीय और अनुकरणीय है। वहां रहने वाले शंकर साहू जी से जब बात हुई उन्होंने कहा इन सब की जिम्मेदारियां हमारे यहां महिलाओं पर ही है जिनके चलते हमारी भाषा और संस्कृति यहां अभी भी फल फूल रही है। हम पुरूष तो बाहर काम करते है, और हमारे जीवन में छत्तीसगढ़ी का उपयोग तब ही होता है जब हम अपने घर में होते है या अन्य छत्तीसगढ़ीयों की बीच।
    जहां एक ओर लगभग 150 वर्षों से छत्तीसगढ़ से आसाम गये लोगों के बीच अभी भी अपनी मातृभाषा के प्रति यह अगाध प्रेम है, छत्तीसगढ़ में ही, खासकर शहरों में रहने वाले, पढ़े लिखे लोगों के बीच छत्तीसगढ़ी विलुप्त होती जा रही है। यह एक दुषचिन्ता का विषय है। स्त्रियों ने संस्कृति के तमाम पक्ष, जिसमें भाषा भी सम्मिलित है, को अज्ञात काल से संधारित किया है, फलस्वरूप वे संस्कृति की धारित्रि होने के साथ ही संवाहिका भी है। उनकों निश्चित ही संस्कृतियों को बिगाड़, उसके स्वरूप में बदलाव और पारंपरिक रीतिरिवाज, अनुष्ठान, धार्मिक कृत्य, आदि में क्षरण उन्हें कचोटता ही होगा और अपेक्षा है वे इसके विरूद्ध बयार चलाने की कोशिश करेंगीं ताकि जिस तरह से उनकी माँओं और सासों ने इसे बचाया और सहेजा है वे भी बचा और सहेज कर अपनी बेटियों और बहुओं को सौंप सके।
    वर्तमान में यह भी एक विचित्र विडंबना है कि इस धारित्रि को ही अपनी अस्तित्व और जीवन की रक्षा में अनेक विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा है। समूची दुनियां में आज महिलाआंे के विरूद्ध इतने अपराध हो रहे है कि सरकारों को इससे निपटने विशेष व्यवस्था करनी पड़ रही है। महिलायें मूलतः परिवार और समाज की संपदा है इन्हें आदर, सम्मान और संरक्षण की अपेक्षा है। क्यांेकि जब ये सुरक्षित रहेंगी तभी सुरक्षित रहेंगे हमारे संस्कार, हमारे आचार-विचार, हमारी ज्ञान पद्धतियों, और हमारी संस्कृति। पुरूष दम ने महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिए अनेक समाजों में सांस्कृतिक-अनुष्ठान के रूप से भी व्यूह रचना कर ली है। यहाँ उदाहरण के रूप में एक प्रकरण को लिखना उत्तम रहेगा। 30 सितम्बर, 2009 को टेलीविजन के न्यूज चैनल में एक समाचार प्रसारित किया गया था जिसमें तमिलनाडु के नमक्काल जिले के एक 300 वर्ष पुराने मंदिर में घटी घटना का विवरण था। यह घटना साल दर साल होती है। दशहरे के दिन वहां हजारों की तादाद में श्रद्धालु पूजा-अर्चना हेतु आते है। समाचार चैनल ने 2009 के दशहरे का विवरण दिखाया जिसमें मंदिर के पुजारी द्वारा 2000 किशोरियों और बच्चों को, जिन्में से कुछ बच्चे 10 वर्ष से भी कम आयु के थे, को लगभग 5 घंटे तक कोडों से पिटाई की गई। पुजारी का कहना था कोड़े मारने से इनकी सारी कमजोरियाँ दूर हो जायेंगी। आश्चर्य जनक बात तो यह है कि इनमें जहां कुछ बच्चों को इसलिए पीटा गया कि वे पढ़ाई मेें कमजोर है, कुछ को इसलिये पीटा गया कि उनकी रजस्वला प्राप्ति में विलम्ब हो रहा है और रजस्वला युवतियों को अपवित्र होने की उपमा देकर कोड़े मारे गये।
    उपरोक्त प्रकरण में अलग-अलग तरह की दलीले दी गई, कुछ ने कहा यह आश्चर्य की बात है 21वीं शदी में ऐसा हो रहा है, वहीं कुछ तथाकथित परंपरावादियों का मंतव्य था की यह उस समाज का निजी मामला है, इसलिये उसमे हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रियों पर लगाये गये सामाजिक नियंत्रण शायद स्त्रियों की सुरक्षा और संरक्षण के लिये अधिक न होकर पौरूष अहनकार के परिणाम स्वरूप ज्यादा बनाये गये है। स्त्रियों की भूमिका मातृवंशीय और मातृस्थानक समाजों में देखने से उनकी महत्ता विशेष रूप से समझी जा सकती है। जहां न केवल वंश, माता के नाम से चलता है वरन संपदा भी माँ की होती है और माँ से बेटियों को हस्तांतरित होती है। यहां पर लगभग 40 साल पुरानी बात का जिक्र करना चाहूंगा कि, यह सही है कि सरकार और संचार माध्यमों ने कोई 2-3 दशक पहले केरल को संपूर्ण साक्षर राज्य के रूप में दर्जा प्रदान किया था। पर 1980 के आसपास एक ऐसी परंपरा से साक्षातकार हुआ, जहां पूर्ण साक्षरता परंपरा के रूप में चली आ रही है। भारत के एक संघ शाषित राज्य लक्ष्यद्वीप मंे मिनीकाय नामक एक छोटा सा द्वीप है, जहां निवास करने लोग माहल नामक भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते है। चूंकि सभी मिनीकाय वासी मुसलमान है इसलिए इस्लाम से संबंधित धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने के लिये मिनीकाय में माहल को पढ़ने लिखने की दक्षता पूरे द्वीप वासियों के बीच विद्यमान है। माहल दिवेहीताना नामक लिपि में लिखि जाती है यह लिपि जो अरबी या उर्दू की तरह दायें से बांये लिखी जाता है। दिवेहीताना सिखाने का दायित्व लगभग घर में माताओं के पास ही होता है। मिनीकाय में स्कूलों में तब देखा गया कि बच्चों के नाम के आगे रजिस्टरांे में पिता के नाम के स्थान पर माता का नाम लिखा जाता था। शेष राष्ट्र में भले ही अब माता और पिता दोनों के नाम लिखे जाते हैं। सभ्यता की शुरूवात से पहले भी शायद जैविक कारणों से चूंकि परिवार जैसी इकाई की तब स्थापना नहीं रही हुई होगी, तो शिशु का मातृत्व तो पक्के तौर पर जाना जा सकता था, क्योंकि वह एक माँ की कोख से जन्म लेता था, भले ही पितृत्व अज्ञात हो।     सभ्यता के चरणों के इन्हीं अराजक परिस्थियों को नियंत्रित करने के लिये परिवार, नातेदारी, धर्म, अपने बच्चे को पालने के लिये आर्थिक उपार्जन और इसके लिये आवश्यक तमाम ज्ञान पद्धतियां स्त्रीयों की ही देन है।
    हमने दादी-नानी की कहानियां और दादी-नानी के नुसखे जैसे शब्द तो सुने पर कभी दादा-नाना की कहानियां और दादा-नाना के नुसखे कहीं सुनाई नहीं देता। स्त्रियों की सांस्कृतिक भूमिका को उन क्षेत्रों में भी महत्ता प्रदान की जाती है जहां संस्कृति के संरक्षण के नाम पर अलगाव वादी गतिविधियां चलती हैं। अशान्त उत्तर पूर्व क्षेत्र के कतिपय राज्यों के बारे में हम सुनते ही रहते हैं, वहीं के एक राज्य मणीपुर से एक संदर्भ यह प्रस्तुत है। आज मणीपुर सर्वाधिक अशान्त राज्य माना जाता है, किन्तु वहां अशांति फैलाने वाले लोगों को भी माताओं के समक्ष झुकना पड़ता है। एक बार अतिवादि तत्वों ने फरमान जारी किया कि कोई पान या तामुल नहीं खायेगा, क्यांेकि यह मणीपुर की मौलिक वस्तु नहीं है। वस्तुतः मणीपुर में पान या तामुल खाने का अत्यधिक प्रचलन है, जिसके खाने वालों में स्त्रीयां भी सम्मिलित है। मणीपुरी माताओं ने इस धमकी का, कि पाने खाने वाले के गाल को ब्लेड से चीर दिया जायेगा, के खिलाफ सड़कों में आकर मोर्चा खोला और अतिवादियों को उनके सामने झुकना पड़ा। मणीपुर में सभी क्षेत्रों में महिलाओं की विशेष भूमिका को पुरूष वर्ग भी महत्ता प्रदान करता है, परिणाम स्वरूप आज छत्तीसगढ़ से कम आबादी और क्षेत्रफल वाले इस राज्य में मेरीकॉम और उसके जैसे कितने तमगे प्राप्त करने वाली महिलाओं ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत में अपना नाम कमाया है। मणीपुर के बड़े शहरों के साथ ही छोटे स्थानों पर भी एक छोटा सा बाजार या विक्रय स्थल होता है जिसे ईमा मार्केट अर्थात माताओं का बाजार कहा जाता है। मणीपुरी महिलायें अपनी खेती और बागवानी के पैदावारों के साथ ही अनेक चीजों का विक्रय करने इस स्थान पर आती है। उनकी मान्यता है कि ईमा मार्केट में विराजने वाली देवी कभी उन्हें खालीहाथ घर वापस नहीं लौटने देगी। आतंक ग्रसित इस राज्य की राजधानी इम्फाल के श्री गोविंद जी मंदिर में प्रातः पूजा के समय लगभग दो तीन सौ माताएं प्रतिदिन इकट्ठा होकर संकीर्तन करती है और इतने विपरीत परिस्थितियों में भी कोई व्यवधान नही करता। माताओं की निडरता और गोविद जी की पूजा अर्चना की परंपरा का निर्वहन किसी भी व्यवधान से समझौता नही करता। माताओ के यह विश्वास और इस कर्मठता को अतिवादी भी नहीं छूं पाये है शायद इसलिये कि उनको इस बात का भरपूर ज्ञान है, कि मातायें है तो समाज है, और मातायें है तो संस्कृति है।
    अतः पूरी समाज से अपेक्षा है कि जन्मदात्री, संस्कार दात्री, और संस्कृति धारित्रि तथा संस्कृति समवाहिका का समूचे मानव समाज में महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता है जिसे संरक्षित करना और सशक्त बनाना समाज के हर सदस्य का दायित्व है।
- अशोक तिवारी
   

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